Friday, October 8, 2010

कहीं में निगाहें, कहीं पे निशाना....

पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ के सुर इन दिनों काफी बदले-बदले से लग रहे हैं। पहले उन्होंने जरदारी सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर टिप्पणी करते हुए अमेरिकी सरकार का ध्यान अपनी ओर खींचने का प्रयास किया और फिर कश्मीर से अमन छीनने वाले आतंकवादियों को पाकिस्तान में प्रशिक्षण देने का ऐतिहासिक बयान दे डाला।

परवेज मुशर्रफ का ये बयान देखने में जितना सीधा सपाट लगता है, उतना है नहीं। परवेज ने इस बयान के माध्यम से एक तीर से कई निशाने लगाने का प्रयास किया है।

मुशर्रफ ने पिछले दिनों एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की जोर-शोर से घोषणा की, पर एक ही दिन में लोग उस पार्टी का नाम भी भूल गए। न तो मुशर्रफ की चुनाव में शामिल होने की घोषणा ने कोई काम किया और न ही उन्हें लेकर विदेशों में तो क्या पाकिस्तान तक की मीडिया में कोई तूफान आया।

अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ जंग में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर अमेरिका इन दिनों गाहे-बगाहे पाकिस्तान सरकार से अपनी नाराजगी जाहिर करता ही रहता है। व्हाइट हाउस की ओर से कांग्रेस को भेजी गई रिपोर्ट में भी पिछले दिनों इस बात का जिक्र किया गया है कि पाकिस्तान सरकार आतंकवाद के खिलाफ जंग में गंभीर नहीं है। ऐसे में पाकिस्तान में इस सरकार की रवानगी के संकेत बन सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो मुशर्रफ के हाथ देश की राजनीति को एक बार फिर अपने कब्जे में लेने का अवसर आ सकता है।

लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी होगा अमेरिका की नजर में चढ़ना, मुशर्रफ ने अपने इस बयान से दुनिया को दिखाने की कोशिश की है कि पाकिस्तान को एक बार फिर पटरी पर लाने के लिए ‘वो हैं ना‘।

मुशर्रफ अपने इस बयान से भारत को भी साधने की कोशिश करते दिख रहे हैं। हालांकि उनका यह प्रयास बहुत सफल हो, इस बात में काफी शक है, लेकिन पूरी दुनिया जानती है कि भारत गिलानी और जरदारी के कारनामों से व्यथित है, ऐसे में मुशर्रफ को इससे बेहतर मौका और कोई नहीं मिल सकता था।

इन सारे उद्देश्यों से उपर मुशर्रफ ने सबसे तगड़ा निशाना चरमपंथियों पर लगाया है। पाकिस्तान में कोई भी सत्ता चरमपंथियों के रहमोकरम के बिना नहीं चल सकती। पाकिस्तान आधारित चरमपंथी इन दिनों खुले तौर पर पूरी दुनिया में हमले करने की चेतावनियां देते हुए घूम रहे हैं। इन जिहादियों को प्रशिक्षण देने का खुलासा करते हुए मुशर्रफ ने इनकी शक्ति के बारे में दुनिया को बताने की कोशिश की है कि इन संगठनों की ताकत पूरी दुनिया को एक मुद्दे पर सोचने के बारे में मजबूर कर सकती है।

कुल मिला कर मुशर्रफ ने एक सनसनीखेज बयान देकर एक तीर से कई निशाने साधे हैं। यहां गौर करने वाली बात ये भी है कि उन्होंने अपनी जबान खोलने के लिए समय का चयन भी बहुत सोच-समझ के किया है। ऐसा समय, जब कश्मीर समेत दुनिया के कई हिस्से आतंकवाद की आग में जल रहे हैं, अफगानिस्तान का अंतहीन युद्ध वहां तैनात देशों के लिए भी मुसीबत बन गया है और दुनिया का दादा अमेरिका आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की अपनी प्रतिबद्धता में एक तरह से हार का सामना करता दिख रहा है। इन सब परिस्थितियों में पूरी दुनिया का ध्यान पाकिस्तान की ओर लगा है और मुशर्रफ ने इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश मंे ये दांव खेला है। अब देखना ये है कि मुशर्रफ की इस अवसरवादिता का भारत कितना फायदा उठा पाता है।

Wednesday, September 15, 2010

मरने के लिए ही पैदा हुए हैं हम...

आज फिर सुबह से शाम तक मैंने पूरी उत्सुकता से टीवी देखा और शाम पांच बजे टीवी पर एक जैसी हेडलाइन देखने को मिली, हम निराश नहीं हैं, जल्द निकलेगा समाधान और कश्मीर के लोग धैर्य रखें, फलां-फलां।

देख कर अचानक कोफत सी होने लगी। कैमरों की चमकती लाइटों के बीच लगभग पांच घंटे की एक फालतू कवायद के बाद भी हमारे देश भर के चुनिंदा नेता उन लाखों लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए कोई एक राय नहीं बना पाए। चिढ़ होने लगी सबके मुस्कुराते हुए चेहरे देखकर, कि जहां एक तरफ देश का स्वर्ग जल-जल कर खाक हो रहा है, वहां ये दिल्ली के एक एसी कमरे में बैठ कर मजे से मुस्कुराते हुए चाय-नाश्ता कर रहे हैं और पांच घटे बाद कह दिया कि एएफएसपीए पर कोई सहमति नहीं बनी और अब एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की आवाम से बात करेगा।

भारत के स्वर्ग से मेरा यूं कोई खास जुड़ाव नहीं है, लेकिन दिल्ली में रहते हुए कश्मीर पर कई स्टोरी कीं और इसी तारतम्य में वहां की कई बुद्धिजीवी महिलाओं से ’टेलीफोनिक रिश्ता’ सा बन गया। अपने दिल की तसल्ली के लिए उन्हीं में से एक महिला को फोन किया, जो अक्सर मुझे ’बेटी’ से ही संबोधित करती हैं।

पेशे से लेखिका नुजहत मैडम ने फोन उठाते ही कहा कि गरिमा, बहुत दिन बाद याद किया। हमें तो लगा कि देश के नेताओं की तरह तुम पत्रकार भी हमें भूल गए हो। मैंने उनसे कहा, ऐसी बात नहीं है, मैडम कश्मीर का मुद्दा बहुत संवेदनशील है और हमें भी वहां से जुड़ी स्टोरी करने के पहले बॉसेस से अनुमति लेनी पड़ती है, सिर्फ इसलिए बात नहीं कर पाई।

मेरी बात सुनते ही वो अचानक बोल पड़ीं, ये ही तो परेशानी है हमारे स्टेट की, कोई भी इससे जुड़ने के पहले 10 बार सोचता है, पर किसी को ये नहीं लगता कि हम भी तो उसी भारत मां के बच्चे हैं, जिनके आप हैं, फिर क्यों हमारी जिंदगी नर्क बन गई है, क्या हमें जीने का अधिकार नहीं।

मैडम नॉन स्टॉप बोलतीं गईं और मैं खामोषी से उनकी बात सुनती रही। वो बोलीं, ’’सारे न्यूज चैनलों पर सिर्फ हम, संयुक्त राष्ट् की भी हम पर नजर, दुनिया भर में हम सुर्खियों में, और एक आम कश्मीरी की चिंता क्या है, किसी ने पूछा, हम कैसे रोज दाल-सब्जी ला रहे हैं, हमारे बच्चे कैसे स्कूल-कॉलेज जा रहे हैं, कोई पूछने नहीं आता। तुम्हें पता है, कफर्यू के टाइम कितने घर ऐसे होते हैं, जिनमें चूल्हे नहीं जलते क्योंकि वो रोज कमा के खाने वालों के घर होते हैं। कितने बीमार लोग अस्पताल नहीं जा पाते और घरों में ऐसे ही मर जाते हैं, लेकिन उनके मरने की खबरें भी नहीं बनतीं क्योंकि खबरों में तो महबूबा और उमर मुस्कुरा रहे होते हैं। मेरी बाई की बेटी पिछले दिनों सिर्फ इसलिए मर गई क्योंकि बाई उसे मलेरिया में डॉक्टर को नहीं दिखा पाई। वो किससे रोए अपना दुखड़ा, क्या कोई सुनेगा। नहीं ना, मेरी बाई को लगने लगा है कि हम मरने के लिए ही पैदा हुए हैं और इसीलिए हम स्वर्ग नहीं नरक में पैदा हुए हैं।’’

मैडम बोलतीं रहीं और मैं दिल थामे सुनती रहीं, क्या बोलती, उनकी एक भी बात का जवाब मेरे पास नहीं था, षायद किसी के पास भी न हो।

Sunday, September 12, 2010

इस शोर में कहाँ खो गयी शांति...

कल 11 सितंबर था। सारे अखबार और टीवी चैनलों के लिए सुकून का दिन। हो भी क्यों ना, आधे दिन तो 09/11 से जुड़ी खबरें ही दिखानी थी। अखबारों के पन्ने भरने में भी अखबारनवीसों को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी होगी क्योंकि दुनिया भर के स्तंभकारों ने भारी-भरकम शब्दों से उनकी परेशानी को हल कर दिया होगा।

कल कई अखबार और चैनल देखे, कहीं कुरान जलाने का प्रॉपोगेंडा तो कहीं अफगानिस्तान युद्ध के फायदे-नुकसानों का विश्लेषण। पूरे दिन बस एक ही राग, अलग-अलग चैनलों पर एक जैसी हैडिंग, जैसे, एक ऐसा हमला, जिसने बदल दी दुनिया या क्या अमेरिका को मिल पाएगा ओसामा बिन लादेन, वगैरह-वगैरह। चैनलों ने तो मानो 9/11 को एक ’राष्ट्ीय बरसी’ के रूप में ही मनाने की ठान ली थी।
कई सारे अखबार टटोल डाले और कई बार टीवी देखा, पर एक खबर जिस पर मेरी निगाह लगी हुई थी, वो कहीं नहीं दिखी। ये खबर भी 9/11 से जुड़ी थी, लेकिन ये 9/11 भारत से जुड़ा था, इसीलिए शायद वो कहीं नहीं दिखी। ये 9/11 था, 1893 का, जिस दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के फुलर्टन हॉल में वर्ल्ड पार्लियामेंट ऑफ रिलीजियंस में दुनिया के नेताओं को ’ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ के रूप में संबोधित करके दुनिया को शांति और भाईचारे का संदेश दिया था।

लेकिन अफसोस, किसी भी चैनल या अखबार में मुझे इस संबंध में एक छोटी सी खबर या टुकड़ा भी नहीं दिखाई दिया, न ही अपनी छोटी-मोटी बातों को फेसबुक पर पोस्ट करने वाले हमारे पत्रकार साथियों ने इस खबर से जुड़ी कोई बात यहां शेयर की।

देख कर लगा, शायद आतंकवाद के इस शोर में शांति पूरी तरह दब गई है। साथ ही मन में ये भी आया कि इस तरह पूरे-पूरे पन्ने आतंकवाद से जुड़ी खबरों से भर के या चैनलों पर दुनिया भर में फैले आतंकवाद के बारे में नमक मिर्च लगाकर कार्यक्रम दिखाने और देखने से क्या हम एक तरह से आतंकवादियों के मंसूबे पूरे नहीं कर रहे हैं?

इस सवाल का जवाब तो मुझे नहीं मिला, लेकिन तभी ख्याल आया, हमारे देश को आतंकवाद से मिले जख्मों का यानी 26/11 का। अब इंतजार है, मुझे भारत के ललाट पर लगे इस जख्म की बरसी का, जिस दिन मैं अमेरिका के अखबारों में देख सकूं कि हमारे देश को लगे आतंकवाद के दंश का शोर वहां भी सुनाई देता है या नहीं।

Wednesday, September 1, 2010

एक पूरे शहर की मौत हुई है प्रधानमंत्री जी, कुछ तो सोचिये...

हमारे ऑफिस में जब भी प्रधानमंत्री से जुड़ी कोई खबर आती है, तो तुरंत शिफट इंचार्ज से लेकर सारे लोग अलर्ट हो जाते हैं, हो भी क्यों न, सारे अखबारों से लेकर टीवी चैनल तक देख लें, ’बड़ी खबर’ की परिभाषा में सबसे पहले प्रधानमंत्री जी से जुड़ी खबर ही फिट बैठती है।

आज भी ऐसी ही एक खबर आई, प्रधानमंत्री जी से जुड़ी हुई। इंचार्ज मैडम का फौरन आदेश आया, हाथ की खबर छोड़ कर इसे देखो। मैं भी जुट गई अभियान में।

सरसरी निगाह से पूरी खबर को देखा, हैडिंग थी, लेह के बाढ़ पीड़ितों के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिए 50,000 रुपये। पूरी पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शयद जल्दबाजी में कहीं गलती हुई है, मैंने एक 0 कम पढ़ लिया है, दोबारा देखी, पर नहीं, मैंने सही देखा था, वो 50,000 ही था।

देख कर लगा प्रकृति की मार झेल रहे लोगों के साथ शायद प्रधानमंत्री जी भी मजाक कर रहे हैं। नहीं तो जिस देश में कॉमनवेल्थ गेम्स को देखते हुए दिल्ली के 1स्टेडियम के जीर्णोद्धार के लिए 1,000 करोड़ रुपये दिए जाते हैं, उस देश के प्रधानमंत्री इतनी बड़ी आपदा के शिकार लोगों के लिए अपनी तरफ से सिर्फ 50,000 रुपये ही दें, ये किसी मजाक से कम नहीं है।

ये बात अलग है कि प्रधानमंत्री जी ने इसके पहले लेह दौरे के दौरान इस उजड़े शहर को फिर बसाने के लिए 125 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की थी, लेकिन 1000 करोड़ और 125 करोड़ में कितना अंतर है, ये तो कोई बिना गणित पढ़ा हुआ भी आसानी से बता सकता है।

तुरंत याद आईं बद्रीनाथ-केदारनाथ से लेकर उटी और रोहतांग जैसे पहाडी स्थानों की अपनी वो यात्राएं, और वहां के लोगों की दुरूह जिंदगी। ऐसी जगहें, जहां पानी की एक साधारण बोतल की कीमत भी मैदानी जगह से चार गुनी ज्यादा हो जाती है, वहां पूरा का पूरा शहर दोबारा बसाने के लिए सिर्फ 125 करोड़ और प्रधानमंत्री जी जैसे ’दिलदार’ नेताओं की तरफ से कुल मिला कर 2-4 लाख रुपये और, जिसमें हमारी माननीय राष्ट्पति जी की ओर से दिए 1,00,000 रुपये भी शामिल हैं। लगा क्या एक पूरे शहर को दोबारा बसाने की सिर्फ इतनी ही कीमत लगी है। और प्रधानमंत्री जी ने अपनी तरफ से दिए भी तो सिर्फ 50,000 रुपए, जितने से हमारे देश के माननीय सांसद भी संतुश्ट नहीं हुए, जबकि ये तो उनकी बेसिक इनकम ही निर्धारित हो रही थी। दूसरे भत्ते अलग।

अचानक याद आया प्रधानमंत्री जी का एक संवाददाता सम्मेलन, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के किसी भी हिस्से में अगर कुछ गड़बड़ होती है, तो उन्हें नींद नहीं आती, पर लगता है कि लेह की प्राकृतिक आपदा के बाद प्रधानमंत्री जी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ है, तभी तो पाकिस्तान जैसे देश को भी आपदा के समय लगभग 117 करोड़ रुपये देने का फैसला करने वाले देश के प्रधानमंत्री में इतनी संवेदनहीनता नहीं दिखती।

दिल में आया, उन तक अपनी बात पहुंचाउं, दुनिया के सबसे उंचे शहरों में से एक शहर की मौत हुई है प्रधानमंत्री जी, कुछ तो सोचिए।

Saturday, August 7, 2010

अच्छी ज़िन्दगी दे दी, अच्छा जीवन देना भूल गए...

17-18 साल के उस लड़के को देख कर ही अंदाजा हो रहा था कि वो किसीसभ्यपरिवार से ताल्लुक रखता है। रीबॉक के जूते, एकदम डिजाइनर फंकी लुक वाला आउटफिट और हाथों में नोकिया सीरिज का मोबाइल। कुल मिलाकर वो सब कुछ, जो दिल्ली में मां-बाप अपने बच्चों को आलीषान जिंदगी जीने के लिए अमूमन देते हैं। दिल्ली में ऐसे सभ्य लड़के-लड़कियां अक्सर दिखते हैं, जो आम तौर पर अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते हैं।

राजीव चौक पर मेट्ो के गेट खुलते ही भीड़ को चीरता हुआ वो लड़का आया और मुझसे दो सीट छोड़ कर बैठ गया। मेट्ो में भीड़ इतनी थी कि मैं समझ गई थी कि आज तो कश्मीरी गेट तक का सफर पूरासफरही बनने वाला है। इस बीच कहीं से भीड़ के बीच 65-66 साल की एक आंटी आईं और उस लड़के से बोलीं कि बेटा प्लीज मुझे सीट दे दो। मुझे जीटीबी नगर तक जाना है और इतनी भीड़ में मैं खड़ी नहीं हो पाउंगी। आंटी की बात सुन कर जाने उस लड़के को क्या हुआ और वो तपाक से बोला, आंटी ये लेडीज सीट थोड़े ही है, जो मैं आपके लिए खड़ा हो जाउं और आप मजे से बैठ जाएं।

इस पर आंटी बोलीं, बेटा तू तो बच्चा है, भीड़ में खड़ा भी हो जाएगा, पर मुझे तो एक धक्का लगेगा और मैं गिर पड़ूगीं। आंटी के ऐसा कहने पर लड़का जाने क्या सोच कर खड़ा हो गया और आंटी उस जगह बैठ गईं। पर तक तब मेट्ो की ऐसी हालत हो गई थी कि कोई टस से मस भी नहीं हो पा रहा था।

एक मिनट बाद नई दिल्ली आया और मेट्ो की हालत और बुरी हो गई। भीड़ के कारण दरवाजे बंद नहीं हो रहे थे और उस लड़के को भी थोड़ा और सिकुड़ना पड़ गया था। भीड़ बढ़ रही थी और साथ में लड़के का गुस्सा भी। अचानक उसका फोन बजा और उसने फोन करने वाले से गुस्से मंे कहा, ’साले, मैं मेट्ो में हूं अभी, बाद में फोन करता हूं।

सामने वाले ने उससे कुछ पूछा, जिसके जवाब में उसने कहामेरे डैड को भी आज ही मेरी गाड़ी ले जानी थी, उनकी खुद की गाड़ी तो खराब पड़ी है, झट से मेरी ले गए, इसलिए मेट्ो से जा रहा हूं।

फोन रखने के बाद भी लड़के का गुस्सा कम नहीं हुआ और उसने आंटी को घूरते हुए उनसे कहा कि एक तो मैंने भाग कर सीट ली और आप उस पर जम गईं। टोकन के पैसे तो मैंने भी दिए हैं। आंटी बोलीं, बेटा बुजुर्ग हूं, इसलिए बैठना जरूरी था। दोनों के बीच बहस होते देखकर पास खड़े 45-46 साल के एक सज्जन लड़के से बोले, बेटा एक तो ये महिला हैं और दूसरे बुजुर्ग हैं, तू खड़ा हो भी गया, तो क्या है। इतना फर्ज तो हमारा भी बनता है।

अंकल के बीच में कूदने से लड़के का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और उसने तेज आवाज में आंटी को सुनायाबुड्ढ़ी हैं, तो अपने घर में बैठें, घूमने की क्या पड़ी है।लड़के की बदतमजी देख कर कोई कुछ बोलता, इसके पहले ही चांदनी चौक आया और वो उतर गया। आंटी भी मन मसोस कर रह गईं, उनकी भी जाने क्या मजबूरी रही होगी, जो इतनी भीड़ वाली मेट्ो में अकेली सफर कर रहीं थीं। अगले स्टेशन पर मुझे भी मेट्ो चेंज करनी थी और मैं उन आंटी और उस लड़के की सूरत को याद करते-करते रिठाला वाली मेट्ो लेने के लिए उतर गई।

उपर आई, तो देखा कि रिठाला वाली मेट्ो की हालत भी बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी, खैर कैसे-जैसे चढ़ गई, बुजुर्गों और विकलांगों वाली सीट के पास थोड़ी जगह थी, जहां जाकर खड़ी हो गई। देखा तो उस सीट पर दो अंकल बैठे थे, जिनकी उम्र यही कोई 60 के आसपास रही होगी। एडजस्ट होते-होते तीस हजारी गया, जहां उसी गेट से एक अंकल-आंटी चढ़े। दोनों की उम्र कम से कम 70 से 75 के बीच थी और दोनों स्टिक लिए हुए थे। देख कर एक बार लगा कि क्या इन्हें ले जाने वाला कोई नहीं था, जो इन्हें मेट्ो में ऐसे अकेले आना पड़ा। मेट्ो से सफर करने वाले इस बात को भली-भांति जानते हैं कि उसके गेट सिर्फ कुछ सेकंड के लिए खुलते हैं और भीड़ ऐसी होती है, कि तौबा....

खैर अंकल-आंटी चढ़ गए और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। उन्हें देख कर भी कोई अपनी जगह से नहीं हिला, क्योंकि सब अपनी दुनिया में व्यस्त थे। किसी से कुछ कहने का फायदा इसलिए नहीं लगा क्योंकि मैं नीचे वाली घटना को भूल नहीं पा रही थी। तभी बुजुर्गों की सीट पर बैठे दोनों अंकलों का का ध्यान मैंने उस ओर दिलाया, जिसके बाद वो खड़े हो गए।

आंटी को मैंने हाथ पकड़ कर उस जगह लाकर बैठाया और बदले में उन्होंने मुझेजींदी रह पुत्तरका आर्शीवाद दे डाला। आंटी से बोला नहीं जा रहा था, पर चेहरे से संतुष्टि दिख रही थी। तभी अचानक उनके चेहरे में मुझे वो नीचे वाली मेट्ो वाली आंटी और उस लड़के का चेहरा दिखने लगा। उस लड़के का वाक्य मेरे कानों में गूंजा, और मेरे मन में उसके मां-बाप का ख्याल गया। मैं सोचने पर मजबूर हो गई कि अपने बेटे को सारी सुख-सुविधाओं से भरी अच्छी जिंदगी देने वाले मां-बाप संभवतः उसे अच्छा जीवन जीने की सीख देना भूल गए, नहीं तो उसके मुंह से आंटी के लिए ऐसेफूलनहीं झरते।

Thursday, July 29, 2010

बापू के भारत में ऐसे मेहमान का स्वागत


उस एक खबर को हिंदी अखबारों में ज्यादा जगह नहीं मिली, पर अपने आप को बापू का भारत बताने वाले, भारत में उस खबर की अपनी अलग ही अहमियत थी। खबर इसलिए जरूरी थी क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक ऐसे सैन्य प्रमुख का स्वागत हो रहा था, जो दुनिया भर में अपनी तानाद्गााही को लेकर खासा कुखयात है।


भारत में पिछले दिनों म्यामां के जुंटा प्रमुख जनरल थान द्यवे का स्वागत हुआ। यह वही जनरल हैं, जिनसे अमेरिका बान की मून समेत पूरी दुनिया ये कहते-कहते थक गई है कि वे लोकतंत्र और अमन के लिए पिछले १९ साल से संघर्च्च कर रहीं आंग सान सू की को रिहा करके एक नया इतिहास बनाएं, पर जनरल ने तो जैसे दुनिया भर की अपीलों की ओर से कान ही बंद कर रखे हैं।


ये वहीं जनरल हैं, जो म्यामां में लोकतंत्र की बहाली के प्रयासों पर नोबल पुरस्कार जीत चुकीं सू की को छोटी-छोटी बातों पर नजरबंदी या जेल में डालने का बहाना ही खोजते रहते हैं। चाहे उनके घर में एक अमेरिकी नागरिक के तैर कर आने का मामला हो या ईंधन की कीमतों में इजाफे को वापस लेने की मांग कर रही जनता का नेतृत्व करने का। लोकतंत्र कायम करने की मांग में अपना जीवन कुर्बान करने वाली सू की की आवाज को दबाने में जनरल ने कोई कसर नहीं छोड़ी।


जनरल ने पिछले दिनों सू की को १८ और महीने के लिए नजरबंदी में कैद कर दिया। इस बार उनके सिर पर आरोप मढ गया अपनी नजरबंदी तोड ने का। सू की की गलती सिर्फ इतनी थी कि उनके घर में एक अमेरिकी नागरिक तैर कर घुस गया, और जिसके घुसके आने के बारे में बेचारी सू की को पता भी नहीं था।


समय-समय पर सू की के बारे में म्यामां सरकार से बात करने का दावा करने वाली भारत सरकार पर सू की की पार्टी को भी अब भरोसा नहीं रह गया है। सू की की नेद्गानल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने भी एक बार कहा था कि उन्हें अपनी नेता की रिहाई के बारे में भारत से कोई उम्मीद नहीं है।


सू की की पार्टी पर पिछले दिनों जब आगामी चुनाव के लिए जुंटा सरकार ने प्रतिबंध लगाया तब भी भारत ने उच्च स्तर पर कोई आपत्ति नहीं उठाई, और अब जुंटा प्रमुख का स्वागत करके भारत ने लोकतंत्र में अपने समर्थन की मंद्गाा पर संदेह पैदा किया है।


भारत में रह रहे म्यामां के लोगों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने जनरल की यात्रा का पुरजोर विरोध किया, म्यामां के लोगों ने दिल्ली में केवल जनरल, बल्कि भारत सरकार के खिलाफ भी नारे लगाए, लेकिन गौर करने वाली बात ये थी कि लोकतंत्र का झंडा उठा कर फिरने वाली विपक्ष की किसी पार्टी को इतनी फुरसत नहीं मिली कि वह दुनिया भर में लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए पहचाने जाने वाले जनरल थान के आगमन पर सरकार के सामने विरोध दर्ज कराती। करतीं भी कैसे, सू की के नाम पर किसी राजनीतिक पार्टी को वोट थोड़े मिलने थे। कारण चाहे कुछ भी हो, पर जनरल का स्वागत करके भारत ने 'लोकतंत्र के झंडाबरदर' की अपनी छवि को थोड धूमिल तो कर ही लिया है।