Wednesday, September 15, 2010

मरने के लिए ही पैदा हुए हैं हम...

आज फिर सुबह से शाम तक मैंने पूरी उत्सुकता से टीवी देखा और शाम पांच बजे टीवी पर एक जैसी हेडलाइन देखने को मिली, हम निराश नहीं हैं, जल्द निकलेगा समाधान और कश्मीर के लोग धैर्य रखें, फलां-फलां।

देख कर अचानक कोफत सी होने लगी। कैमरों की चमकती लाइटों के बीच लगभग पांच घंटे की एक फालतू कवायद के बाद भी हमारे देश भर के चुनिंदा नेता उन लाखों लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए कोई एक राय नहीं बना पाए। चिढ़ होने लगी सबके मुस्कुराते हुए चेहरे देखकर, कि जहां एक तरफ देश का स्वर्ग जल-जल कर खाक हो रहा है, वहां ये दिल्ली के एक एसी कमरे में बैठ कर मजे से मुस्कुराते हुए चाय-नाश्ता कर रहे हैं और पांच घटे बाद कह दिया कि एएफएसपीए पर कोई सहमति नहीं बनी और अब एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर की आवाम से बात करेगा।

भारत के स्वर्ग से मेरा यूं कोई खास जुड़ाव नहीं है, लेकिन दिल्ली में रहते हुए कश्मीर पर कई स्टोरी कीं और इसी तारतम्य में वहां की कई बुद्धिजीवी महिलाओं से ’टेलीफोनिक रिश्ता’ सा बन गया। अपने दिल की तसल्ली के लिए उन्हीं में से एक महिला को फोन किया, जो अक्सर मुझे ’बेटी’ से ही संबोधित करती हैं।

पेशे से लेखिका नुजहत मैडम ने फोन उठाते ही कहा कि गरिमा, बहुत दिन बाद याद किया। हमें तो लगा कि देश के नेताओं की तरह तुम पत्रकार भी हमें भूल गए हो। मैंने उनसे कहा, ऐसी बात नहीं है, मैडम कश्मीर का मुद्दा बहुत संवेदनशील है और हमें भी वहां से जुड़ी स्टोरी करने के पहले बॉसेस से अनुमति लेनी पड़ती है, सिर्फ इसलिए बात नहीं कर पाई।

मेरी बात सुनते ही वो अचानक बोल पड़ीं, ये ही तो परेशानी है हमारे स्टेट की, कोई भी इससे जुड़ने के पहले 10 बार सोचता है, पर किसी को ये नहीं लगता कि हम भी तो उसी भारत मां के बच्चे हैं, जिनके आप हैं, फिर क्यों हमारी जिंदगी नर्क बन गई है, क्या हमें जीने का अधिकार नहीं।

मैडम नॉन स्टॉप बोलतीं गईं और मैं खामोषी से उनकी बात सुनती रही। वो बोलीं, ’’सारे न्यूज चैनलों पर सिर्फ हम, संयुक्त राष्ट् की भी हम पर नजर, दुनिया भर में हम सुर्खियों में, और एक आम कश्मीरी की चिंता क्या है, किसी ने पूछा, हम कैसे रोज दाल-सब्जी ला रहे हैं, हमारे बच्चे कैसे स्कूल-कॉलेज जा रहे हैं, कोई पूछने नहीं आता। तुम्हें पता है, कफर्यू के टाइम कितने घर ऐसे होते हैं, जिनमें चूल्हे नहीं जलते क्योंकि वो रोज कमा के खाने वालों के घर होते हैं। कितने बीमार लोग अस्पताल नहीं जा पाते और घरों में ऐसे ही मर जाते हैं, लेकिन उनके मरने की खबरें भी नहीं बनतीं क्योंकि खबरों में तो महबूबा और उमर मुस्कुरा रहे होते हैं। मेरी बाई की बेटी पिछले दिनों सिर्फ इसलिए मर गई क्योंकि बाई उसे मलेरिया में डॉक्टर को नहीं दिखा पाई। वो किससे रोए अपना दुखड़ा, क्या कोई सुनेगा। नहीं ना, मेरी बाई को लगने लगा है कि हम मरने के लिए ही पैदा हुए हैं और इसीलिए हम स्वर्ग नहीं नरक में पैदा हुए हैं।’’

मैडम बोलतीं रहीं और मैं दिल थामे सुनती रहीं, क्या बोलती, उनकी एक भी बात का जवाब मेरे पास नहीं था, षायद किसी के पास भी न हो।

1 comment: